Saturday, 24 September 2011

फ़ॉर्मूला हिट हो गया

देश अब इस स्थिति में आ चुका है कि मुन्नी बदनाम हुई आइटम साँग की तरह कब क्या हिट हो जाए कुछ पता नहीं. किसने सोचा होगा कि कभी आइटम साँग ही इस देश की सबसे बड़ी संगीत कला बन जाएगा कि बड़ी - बड़ी अभिनेत्रियां आइटम डांस करने को दीवानी हो उठेंगी. क्या पता कल को कोई नृत्य - संगीत का विद्वान आइटम नंबर को ही इस युग की सबसे बड़ी संगीत उपलब्धि सिद्ध कर दे. तर्क तो बहुत से हो सकते हैं. मसलन - आइटम ही ऐसा नृत्य है जिससे पूरे शरीर का व्यायाम होता है और शरीर स्वस्थ रहता है. योग की तरह आइटम भी रोग भगाने का उत्तम सधन है. दर्शक आइटम से आनंदित होते हैं और उन का मन प्रसन्न रहता है. वे एकाग्रचित होकर ध्यान योग की अवस्था में पहुँच जाते हैं.
इधर राखी सावंत और बाबा रामदेव की जिस तरह की खबरें लगातार छप रही हैं उससे भी यही सिद्ध होता है कि आइटम और योग का ज़रूर कोई गहरा संबंध है अब बाबा रामदेव को ही देख लीजिए. इस देश में ऋषियों व योगियों की कोई कमी रही है. ऋषि, मुनि , योगी सिर्फ़ इसी पावन भूमि में पैदा हुए हैं. लोग बताते हैं यहाँ तो जो बच्चा पैदा होता है वह योग करते हुए ही पैदा होता है. बड़े - बड़े योगी लोगों को सदियों से योग सिखा रहे हैं. पर फार्मूला हिट हुआ तो सिर्फ़ बाबा रामदेव का. मात्र 10 साल में एक टूटी साइकिल से हवाई जहाज तक का जो सफ़र उन्होंने तय किया और जितनी लोकप्रियता हासिल की उसे देखकर तो खुद पतंजलि को भी डिप्रेशन होता होगा. खैर बाबा रामदेव को देखकर तो अच्छे - अच्छे कुंठा ग्रस्त हो जाते हैं. पहले आई.ए.एस., आई.पी.एस स्तर के अधिकारी मन मसोसते थे- क्या फ़ाइदा सिविल सर्विसिज पास कर अधिकारी बनने का? अनपढ़ नेता चुनाव जीतकर मंत्री बन जाते हैं, हमारे ऊपर न सिर्फ़ हुक्म चलाते हैं बल्कि एक शासन काल में इतना पैसा खींच लेते हैं कि हम पूरी ज़िंदगी में नहीं कमा पाते. पर इधर जिस तरह बाबा रामदेव ने पूरी दुनिया में टापू खरीदे हैं, दवाओं की फ़ैक्ट्रियां खोली हैं, रुपओं के ढेर लगा दिए हैं उससे अब उनकी कुंठा बहुत बढ़ गई है और वे अब आहें भरते हैं कि इससे तो अच्छा रहता बाबा रामदेव की तरह 8 वां पास करके लोगों को पेट चलाना सिखाने लगते. 10 साल में बाबा ने जितना कमाया है उतना कमाने के लिए तो 10 जन्म में आई.ए.एस बनना पड़ेगा. पर बात वही है, सबका फार्मूला हिट नहीं हो जाता. वरना इस देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो आठवां पास करने के के बाद योग सिखाने लगे, कोई उनसे पेट चलाना सीखने नहीं आया उनकी ज़िंदगी अपना पेट चलाने में ही निकल गई और वे रामदेव नहीं बन पाए. कमी तो ऐसे लोगों की भी नहीं है जिन्होंने अपना सब कुछ झोंककर सिविल की तैयारी की और एस.पी, कलेक्टर बनते बनते रह गए पर बन नहीं पाए. जब एस.पी कलेक्टर नहीं बन पाए तो क्लर्क बनने लाइक भी नहीं रहे और बाद में दो जून रोटी के भी लाले पड़ गए. सो प्यारे, नेता या रामदेव को देखकर कुंठा पालना ठीक नहीं, खुश रहो, जो बन गए वह भी कम नहीं है, भले ही आप विदेशों में टापू न ख़रीद पाएं पर सिविलियन बन के भी शहर या राज्य खरीदने लायक जुगाड़ आप बना लेंगे.
आडवाणी का रथयात्रा का फॉर्मूला तो इस क़दर सुपर हिट हुआ कि उसने भाजपा को भी एक राजनीतिक पार्टी सिद्ध कर दिया. आडवाणी के मनो-मष्तिस्क पर उसका ऐसा असर पड़ा कि वे भूल ही गए कि इस फॉर्मूले के अलावा राजनीति में कोई दूसरा फॉर्मूला भी आज़माया जा सकता है.
इधर गाँधी का उपवास वाला फॉर्मूला जितना हिट हुआ है उसकी कल्पना तो ख़ुद गाँधी ने भी नहीं की होगी. कुछ दिन पहले ही 12दिन का उपवास कर के अन्ना हज़ारे ने पूरे देश को टोपी पहना दी. अब गुजारात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने सद्भावना के लिए 3 दिन का उपवास रखा है. मोदी की छवि सद्भाव बिगाड़ने वाली रही है. ऐसा बताया जाता है कि गुजरात के दंगे उन्होंने ही प्रायोजित कराए थे. अमेरिका ने उन्हें वीज़ा नहीं दिया, उसका भी यही कहना था कि मोदी गुजरात दंगों के गुनहगार हैं. पर इससे क्या, अन्ना के उपवास के फोर्मूले के हिट होते ही मोदी को भी लगा होगा यह फोर्मूला भी आज़मा के देख लिया जाए, अन्ना के मामले में हिट हो चुका है, क्या पता उनके मामले में भी हिट हो जाए. 3 दिन भूखा ही तो रहना है. फ़िर क्या पता आडवाणी की रथयात्रा की तरह की तरह उपवास का फॉर्मूला हिट हो जाए.
अगर मोदी का उपवास का फॉर्मूला हिट हो गया तो फिर इस की प्रक्टिस की संभावना बहुत बढ़ जाएगी. मसलन उसके बाद रेड्डी बंधु अवैध खनन को रोकने के लिए उपवास पर जा सकते हैं. ए. राजा, कलमाड़ी आदि घोटाले रोकने के लिए उपवास पर जा सकते हैं, दाऊद जैसे कुछ लोग अंडर वर्ल्ड के विरुद्ध उपवास पर जा सकते हैं.

Thursday, 25 August 2011

आंदोलन तो होकर रहेगा


अगर भाजपा और आर.एस.एस. आंदोलन करने की ठान लें तो भला उन्हें कौन रोक सकता है. उन्होंने मंदिर आंदोलन किया और खूब सफलतापूर्वक किया. अब वे भ्रष्टाचार पर आंदोलन कर रहे हैं. वे हर मुद्दे पर आंदोलन कर चुके हैं- गोरक्षा, स्वदेशी, मंदिर, संस्कृति, भारत माता यानी हर मुद्दे पर वे आंदोलन कर चुके हैं. बस एक ही मुद्दा बच था- भ्रष्टाचार. और वे काफ़ी समय से इस मुद्दे पर आंदोलन करने की जुगाड़ में थे पर समझ नहीं पा रहे थे कि इस मुद्दे पर कैसे आंदोलन खड़ा किया जाए. इधर वे भ्रष्टाचार को इश्यू बनाते थे उधर यदुरप्पा आड़े आ जाते थे. जनता उन्हे गंभीरता से ले नहीं रही थी. इश्यू बन नहीं पा रहा था और बिना इश्यू के आंदोलन भला कैसे हो सकता है? ऐसे में जब रामदेव मैदान में आए तो उन्हें बहुत उम्मीद बॅधी थी पर रामदेव एक दिन में ही हवा हो गए. पर कोई बात नहीं, रामदेव न सही अन्ना सही. बात इश्यू बनने की थी और इश्यू अन्ना ने बना दिया. अब जब इश्यू बन गया तो उन्हें भला आंदोलन करने से कौन रोक सकता है. तो आंदोलन शुरू हो गया है और जनता सड़कों पर आ गई है. या कहना चाहिए भाजपा के कार्यकर्ता और अन्ना की सिविल सोसाइटी के NGO जनता को सड़कों तक बहला लाए हैं. तो भीड़ इकट्ठी हो चुकी है और आर.एस.एस. को आंदोलन करने के लिए और क्या चाहिए. एक भीड़ चाहिए और वह इकट्ठी हो चुकी है, फिर उसे आंदोलन करने से रोक ही कौन सकता है. तो अब तय मानिए इस देश में आंदोलन होकर रहेगा. 'जाकी रही भावना जैसी' सो भीड़ को देखकर अलग अलग लोगों की अलग अलग तरह की भावनाएं जाग्रत हो रही हैं. काँग्रेस को लग रहा है यह मदारी वाली भीड़ है. भाजपा को लग रहा है आंदोलन है. बिलकुल मंदिर आंदोलन वाला. उन्हें विश्वास सा होता जा रहा है कि काँग्रेसी नेता जैसी हरकतें कर रहे हैं उससे उनका आंदोलन सफल होकर ही रहेगा. सुषमा स्वराज ने आह्वान कर दिया है कि इमर्जेंसी बस लगने ही वाली है और उसके बाद (भारतीय)जनता पार्टी की ही सरकार बनेगी. वामपंथी उससे भी आगे सोच रहे हैं. उनका कहना है कि जब भीड़ इकट्ठी हो जाए तो आंदोलन नहीं सीधे क्रांति होती है. इसी झगड़े में भाजपाई उन्हें दौड़ा दौड़ा कर पीट रहे हैं कि यह हमारा मंदिर आंदोलन है अगर क्रांति करनी है तो मज़दूरों के पास जाओ. हमने देशभर में अपने कार्यकर्ता उतारे हैं क्या तुम्हारी क्रांति के लिए उतारे हैं. वे फिर भी आंदोलन को आंदोलन मानने को राजी नहीं हैं.
तो आंदोलन शुरू हो गया है और आज हर कोई अन्ना के समर्थन में उतर आया है. टाटा बिड़ला से लेकर तिहाड़ के अपराधी तक, सरकारी से लेकर गैर सरकारी संगठन(NGO) तक, महा भ्रष्ट से लेकर महा ईमांदार तक भाजपा से लेकर सीपीआई तक.
तो आंदोलन शुरू हो गया है और जनता सड़कों पर उतर आई है. जनता को छोड़ कर शेष सब को पता है कि यह आंदोलन है और उन्हें आंदोलन से क्या हासिल करना है. सिर्फ़ जनता है
जो यह समझ रही है कि इस आंदोलन से भ्रष्टाचार ख़त्म करना है.
दिन में तो न आंदोलन करने वालों को फुर्सत है न करवाने वालों को. सो हमने सपने में इस आंदोलन का जाइजा लिया है, उसे ज्यों का त्यों आपके सामने रख रहा हूँ.
मैंने भीड़ में से कुछ लोगों से पूछा - आप क्यों आंदोलन कर रहे हैं?
वे बोले - भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के लिए.
मैंने पूछा - कैसे बनाएंगे भ्रष्टाचार मुक्त भारत.
बोले- जैसे अन्ना बनाना चाहें.
मैंने पूछा- अन्ना तो जन लोकपाल बनाना चाहते हैं.
तो बनाएं जन लोकपाल.
फिर भारत भ्रष्टाचार मुक्त कैसे होगा? अन्ना की टीम कह रही है इससे तो 60% ही भ्रष्टाचार खत्म होगा?
'चाहे 60% कम करें या 40% कम करें जैसी उनकी मर्जी.'
दूसरा बोला- ठीक है अभी 60% के लिए बना लेते हैं बाद में 40% के लिए बना लेंगे.
तीसरा बोला - 60% भी कम नहीं होता है. आधे से तो ज़्यादा ही है.
खैर जितने लोग उतनी उतनी बातें. दोष उनका भी नहीं है. आंदोलन करवाने वालों ने, भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना है, इतना ही उन्हें बताया है.
उसके बाद हम सुषमा स्वराज के पास पहुँचे. हमने उनसे पूछा- आप तो इस आंदोलन से क़रीब से जुड़ी हैं. आपके राजघाट वाले नाच की बहुत चर्चा हुई थी. क्या आप वाक़ई भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए आंदोलन चला रहीं हैं?
जागते में नेता कभी सच नहीं बोलते. बात सपने में हो रही थी सो उन्होंने दो टूक जवाब दिया- देखो हमें किसी लोकपाल और भ्रष्टाचार से कुछ लेना देना नहीं है. हम भी काफ़ी समय से भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहे थे पर बात बन नहीं रही थी. अब अन्ना भी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना चाहते थे. हमारे उन से विचार मिल गए. उन्होंने कहा हम अनशन पर बैठ जाएंगे. हमने कहा ठीक है हम आंदोलन कर देंगे. बाकी आप जानते ही है हमने अपने शासन में लोकपाल बिल पास नहीं होने दिया. तमाम राज्यों में लोकपाल हैं , गुजरात में हमारी सरकार है हमने वहाँ कभी लोकयुक्त न्युक्त नहीं किया.
इसके बाद हम सीधे अन्ना हज़ारे के पास आए. हमने उनसे पूछा- आप लोकपाल बनवाने के लिए अनशन पर बैठे हैं. वे बोले- हाँ बैठे हैं.
हमने कहा- आप प्रधानमंत्री व उच्च न्यायपालिका के लोकपाल में लाने की बात कर रहे हैं जबकि कॉर्पोरेट में सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार है, NGO सबसे भ्रष्ट हैं. अधिकांश अफ़सर व नेताओं की बीवियाँ NGO चलाती हैं और आप कॉर्पोरेट व NGO को लोकपाल के दाइरे में लाने की बात नहीं करते?
वे बोले- देखिए मुझसे तो किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल ने जितना कहा है उतनी बात कर रहा हूँ.
हमने कहा- आप आंदोलन के सबसे आदर्श व बड़े नेता हैं आप को खुद भी तो कुछ बोलना चाहिए.
वे बोले - बड़े नेता को बोलना चाहिए यह किसने कहा. कृष्णा कम बड़े नेता हैं? वे वही बोलते हैं जो उनके सचिव लिख के दे दें. आतंकवादी भारत की जेल में बंद हैं और वे पाकिस्तान को उनकी लिस्ट थमाते हैं. बड़े नेता को भी खुद कुछ बोलना चाहिए यह बात न तो कोई कृष्णा से पूछता है और न मन मोहन से.
हम कुछ और कहते पर यह सोच कर थोड़े भावुक हो गए कि अन्ना 74 वर्ष के हैं और अनशन पर बैठे हैं. हालांकि ऐसे मैसेज जब हमारे पास आ रहे थे तब हमें भावुक होने के बजाय गुस्सा आया था -'भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना है. 74 वर्षीय अन्ना आपके बच्चों के लिए अनशन पर बैठेंगे, तब आप घर में बैठे रहेंगे कि सड़क पर उतरेंगे.' पहली बात यह है कि मेरे बच्चे नहीं हैं क्योंकि मैं अभी तक बच्चों की माँ नहीं लाया हूँ. दूसरी बात यह है कि ये केजरीवाल और उनकी कंपनी मुझे ठलुआ समझती है और इन्हें लगता है मैं हमेशा घर पर ही बैठा रहता हूँ.
खैर, हम किरण बेदी के पास पहुँचे. हमने कहा - आप भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन कर रही हैं ?
'किसने कहा मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन कर रही हूँ? मैं तो जब नौकरी में थी तब भी मैंने सरकार से कहा था डी.जी.पी बनाना है तो बनाओ, सरकार ने नहीं बनाया तो मैंने कहा- सँभालो अपना पुलिस रिसर्च डिपार्टमेंट, इससे तो बेहतर है पूरे टाइम मैं अपने NGO देखूँ.
उनके तेवर देखकर हमें आगे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई फिर भी हमने हिम्मत जुटा के पूछा- क्या मजबूत लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा?
उन्होंने व्यंग्य से मुस्कराते हुए हमें देखा, बोलीं- अभी एक दरोगा का थर्ड डिग्री नहीं देखा है. मजबूत से मजबूत लोकपाल को घुटनों के बल आने में एक घंटा से ज़्यादा नहीं लगता. हमें लगा कहीं थर्ड डिग्री की प्रक्टिस हमीं पर न शुरू कर दें. क्या भरोसा पुरानी पुलिस अफ़सर हैं क्या भरोसा, सो हम तेजी से निकल लिए.
हम केजरीवाल के पास आए. हमने उनसे पूछा -सुना है आप सिविल सोसाइटी हैं ?
'हैं तो?'
'यह सिविल सोसाइटी क्या होती है?'
'मोटे तौर पर यही मान लो कि कुछ NGO चलाने वाले लोग मिल कर भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करें वही सिविल सोसाइटी होती है.'
'आप कहते हैं तो मान लिया. अब यह बताओ आप भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं और NGO व कॉर्पोरेट को लोकपाल के दाइरे में नहीं लाना चाहते फ़िर भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा?'
'हमने भ्रष्टाचार खत्म करने का ठेका ले रखा है क्या? पहले सूचना का अधिकार लाए अब लोकपाल लेकर आए हैं. फिर भी भ्रष्टाचार नहीं मिट रहा है तो हम क्या करें?'
बात मानने लाइक थी , भ्रष्टाचार मिटाने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते थे. हमने कहा लोग कह रहे हैं आप अपने NGO और उन्हें फंड देने वाले कॉर्पोरेट को लोकपाल में नहीं लाना चाहते.लोग कह रहे हैं तो ले ही आते, उन्हें लोकपाल में ले आने से भी क्या हो जाएगा?
'होगा तो कुछ भी नहीं पर हम सोचते हैं अगर वे लोकपाल के दाइरे में न आएं तो अच्छा है,'
अंत में हमने पूछा- अच्छा ये बताइए आप कह रहे हैं लोकपाल से 60% भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. आपने यह किस फार्मूले से निकाला है?जिस रास्ता से 40% बच जाएंगे क्या वह रास्ता 60% नहीं अपन सकते? या सिर्फ़ उन 40% को ही बताया जाएगा?'
हमारी बात पर वे एकदम गुस्सा होकर बोले- अभी हम कहते 100% खत्म हो जाएगा तो हमारी बात पै कोई विश्वास नहीं करता. हम कहते 40%खत्म हो जाएगा तब भी कहते यह कैसा लोकपाल है जो आधा भ्रष्टाचार भी खत्म नहीं करेगा. सो हमने आधे से थोड़ा ज़्यादा का आँकड़ा रखा है तब पूछ रहे हो कौन से फर्मूले से निकाला है.'
अब हम घर लौट रहे थे कि रास्ते में संसद पड़ी. देखा वहाँ प्रधानमंत्री ने एक आपात बैठक बुलाई थी. वहाँ पक्ष - विपक्ष, सिविल सोसाइटी, पूँजीपति सभी बैठे थे. सब कह रहे थे हमें लोकपाल के दाइरे में न लाया जाए. तेज़ बहस के बाद यह निष्कर्ष निकला कि मीडिया,मंत्री,न्यायपालिका,अफ़सर,कर्मचारी,NGOs,पूँजीपति सिविल सोसाइटी किसी को भी लोकपाल में लाने की ज़रूरत नहीं है. यह जनता ही भ्रष्ट है जो अफ़सरों को रिश्वत देती है इसी को लोकपाल के दाइरे में लाया जाए. इस बात पर सभी एकमत थे. इस पर अन्ना थोड़े उदास हो गए. बोले -हमने इतना लंबा अनशन किया, इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई क़हा. मुझे दूसरा गाँधी कहा. और अंत में सिर्फ़ जनता को ही इस में शामिल किया गया है. अन्ना की उदासी देखकर वे सब बोले- ठीक है आप कहते हैं तो हम सब अपने आपको लोकपाल के दाइरे में रख लेते हैं. उन सबने अपने आप को लोकपाल के दाइरे में रख लिया. पर मुझे लगा वे लोकपाल के दाइरे में आकर भी दाइरे से बाहर है और सिर्फ़ जनता ही है जो लोकपाल के दाइरे के अंदर है. आज तक इस देश में जब भी लोकपाल बना है ये लोग हमेशा उसके दाइरे में आते हुए भी उसके दाइरे से बाहर रहे हैं.
खैर ये सब सपने की बातें थीं अब में आपको एक सच्ची कहानी सुनाता हूँ.
एक बार में एटा चौरहे पर खड़ा था. आगरा से एक बस आई. उसमें से एक व्यक्ति ने एक पोटली उतारी. तभी 2 सिपाही आए. एक ने हल्के से पोटली में डंडा मारते हुए पूछा- इसमें क्या है? 'बेचने का सामान है, वह व्यक्ति बोला.
'इसे रिक्शे पर रख और थाने चल' सिपाही ने कहा. वह बोला-क्यों ? मैने ऐसा क्या किया है?किस कानून के तहत आप थाने ले जा रहे हैं? जाँच अधिकारी आम तौर पर दरोगा होता है. वही कनून की धाराएं लगाता है.सिपाही को क्या पता किस कनून के तहत उसे थाने ले जाना है. पर उसने हिम्मत नहीं हारी. बोला- अबे इसे उठाकर रिक्शे में रख, थाने में तमाम कानून हैं, तू जो कहेगा वो लगा देंगे.
सिपाही को कानून भले ही न पता हो पर वही कानून व्यवस्था लागू करता है. अब अगर कोई पूछे किस कानून के तहत थाने चलना है तो शायद उसे सोचना न पड़े, झट से बोल दे - लोकपाल के तहत.

Friday, 1 July 2011

हाय! चवन्नी तू क्यों बंद हो गई

आख़िर चवन्नी बंद हो ही गई. जैसा कि होना ही था बैंक ने इधर चवन्नी के बंद होने की घोषणा की उधर चवन्नी छाप लेखक जो बेसब्री से इस घोषणा का ही इंतज़ार कर रहे थे, कलम लेकर मैदान में उतर आए हैं और उन्होंने अख़बारों के पन्ने रँग मारे हैं -हाय! चवन्नी तू बंद हो गई.
चवन्नी मीडिया में छा गई है. बड़ी - बड़ी स्टोरियां चल रही हैं चवन्नी पर. संपादकीय में धीर गंभीर लेख छप रहे हैं. पूरी सतर्कता बरतते हुए कि चवन्नी से जुड़ा कोई दार्शनिक पहलू छूट न जाए. साहित्यकारो की राय ली जा रही है कि वे भी चवन्नी से जुड़े अपने संस्मरण जनता के साथ शेयर करें. अर्थशास्त्रियों के विचार लिए जा रहे हैं कि चवन्नी बंद होने से देश की अर्थ व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा. लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा उभर के आया है वह यह है कि चवन्नी के बंद होने से धर्म और भारतीय संस्कृति पर संकट के बादल छा गए हैं. महंत ठगानद ने हिंदू धर्म के वैज्ञानिक कारणों की तर्ज पर उसके ठोस कारण बताए हैं. उनका मानना है कि सवा रुपए का परसाद चढ़ाने की हिंदू धर्म की मान्यता है. जैसे हर आदमी की खाने की अपनी क्षमता होती है वैसे ही भगवान की भी क्षमता है. सवा रुपए का परसाद चढ़ाने की आखिर यों ही मान्यता नहीं बनी है. यह मन्यता डेढ़ रुपया या एक रुपया भी हो सकती थी. बात साफ़ है जो पुन्य सवा रुपए के परसाद से मिलता है वह डेढ़ रुपए के परसाद से नहीं मिल सकता. दर असल चवन्नी बंद कर के धर्म और भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात किया है.
महंत ठगानंद की बात से प्रभावित हो कर बीजेपी के एक उत्साही कार्यकर्ता अखबार हाथ में लेकर कार्यालय पहुँचे और वरिष्ठ नेताओं के साथ विमर्श करते हुए बोले - पार्टी कोई मुद्दा उठाए जनता उस पर ध्यान नहीं देती. बाबा रामदेव पर उम्मीद थी उन्हें काँग्रेस ने खदेड़ दिया. अन्ना से उम्मीद थी, वे भ्रष्टाचार को मुद्दा बना ले जाएँगे पर लगता है उनका उपयोग भी काँग्रेस ही कर ले जाएगी. ऐसे में हाथ आए मुद्दे को निकलने नहीं देना चाहिए. अख़बार को आगे कर के बोले- सरकार ने चमन्नी बंद कर के धर्म और भारतीय संस्कृति पर हमला किया है. अब सवा रुपए का परसाद आम आदमी नहीं चढ़ा पाएगा. एक बार हमने मुद्दा उठा दिया तो समझो जनता एकदम गोलबंद हो जाएगी. चुनाव नजदीक है, समझो यू.पी में अपना मुख्यमंत्री पक्का है.
पास में खड़ा एक नौजवान कार्यकर्ता एकदम उत्साह से भर कर बोला- बिलकुल ठीक, आप कहें तो कल से ही कार सेवा शुरू करा देते हैं.
एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें घूरकर देखा. बोले- कहाँ कार सेवा शुरू कराओगे?
वरिष्ठ नेता के आक्रमण को बेचारा नौजवान कार्यकर्ता झेल नहीं पाया. उसकी कुछ समझ नहीं आया तो उसने प्रस्ताव रखने वाले कार्यकर्ता की ओर देखा पर कार सेवा का प्रस्ताव उन्होंने तो रखा नहीं था. सो वे क्या जवाब देते. थोड़ी देर चुप्पी झेलने के बाद वरिष्ठ नेता जी बिगड़ पड़े - तुम समझते हो चवन्नी बंद होने का मुद्दा तुम उठा दोगे और जनता इतनी पागल है कि वह तुम्हें वोट देने दौड़ पड़ेगी ? तुम लोगों की इन चवन्नी छाप हरकतों की वजह से ही पार्टी की यह हालत हुई है कि पार्टी अब कोई मुद्दा उठाए जनता उसे सीरियसली नहीं लेती. किसी ज़माने की फ़ायर ब्रिगेड उमा भारती तक यह कह रही हैं कि अब मंदिर कोई मुद्दा नही है और तुम चवन्नी के बूते यू.पी में मुख्यमंत्री बनाने के सपने देख रहे हो.
ख़ैर मामला आगे नहीं बढ़ा और भाजपा के इतिहास में जो मुक़ाम मंदिर का है वैसा मुक़ाम हासिल करने से चवन्नी रह गई.
तो आजकल चवन्नी मीडिया में छाई हुई है. सो गेट पर खड़े सोनू के सामने हमारे मुँह से निकल गया - क्यों बेटा तुमने सुना चवन्नी बंद हो गई.
लडका तपाक से बोला- हाँ अंकल आजकल मीडिया में बहुत हल्ला मचा हुआ है, चवन्नी बंद हो गई. क्या चवन्नी कोई एक्सप्रेस ट्रेन थी जिसके बंद होने से जनता को भारी परेशानी हो रही है. आख़िर यह चवन्नी है क्या बला जिसके बंद होने से मीडिया में इतना बवाल मचा हुआ है.
मैं सोनू को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला- क्या टीवी नहीं देखते , अखबार नहीं पढ़ते? मीडिया में इतना हल्ला मचा हुआ है और तुम्हें यह ही नहीं पता चवन्नी क्या है.
टीवी और अख़बार का काम ही है अंट संट बातें बकते रहना. उन्हें याद रख के क्या उखाड़ लेंगे. मीडिया की अंट संट बातें याद रखें कि गर्ल फ़्रैंड्स के नंबर याद रखें.
लडके ने मन में कहा. पर प्रत्य्क्षतः कुछ बोला नहीं. मैंने कहा - चवन्नी यानी पच्चीस पैसा इंडियन करेंसी थी जिसे बंद करने की रिजर्व बैंक ने घोषणा कर दी है. लडके ने आश्चर्य से देखा- पच्चीस पैसे ! ये कब चलते थे ? 20 साल का तो मैं हो गया मैंने तो अपने होशो- हवास में कभी चवन्नी देखी नहीं. खैर चलती होगी कभी. पर मीडिया वाले अब इतना हल्ला क्यों मचा रहे हैं?
मैंने लड़के को देखा. चुपचाप देखता रहा. भला मैं उसकी बात का क्या उत्तर देता . मीडिया जाने कैसी कैसी बातों पर हल्ला मचाता रहता है अब मेरे पास उसका क्या जवाब है?

Monday, 20 June 2011

आसान नहीं है बड़ा नेता बनना

मेरे ख़याल से राजनीति विज्ञान में इस बात पर विस्तार से शोध होना चाहिए कि कोई व्यक्ति बडा नेता कैसे बनता है. बहुत से लोग बड़ा नेता बनने के लिए ज़िंदगी भर हाथ पैर मारते रहते हैं और बड़ा नेता नहीं बन पाते. बहुत से लोगों को जुम्मा - जुम्मा 4 दिन राजनीति में आए नहीं होते और वे बड़े नेता बन जाते हैं. कूछ तो राजनीति में आने से पहले ही बड़े नेता बन जाते हैं.
अब सोनिया को ही देख लीजिए. राजनीति में आने की देर नहीं हुई वे दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिला बन गईं. बड़े - बड़े खिलाड़ी जो प्रधानमंत्री बनने के लिए उतने ही बेचैन थे जितने कि आज आडवाणी पर सोनिया के मैदान में आते ही आउट हो गए.
बहुत से लोग यही समझते हैं कि खादी का कुर्ता व पायजामा पहनने भर से आदमी नेता बन जाता है. मेरे पड़ौस में एक सज्जन रहते हैं. पता नहीं अचानक उन्हें क्या सूझी कि एक दिन खादी का कुर्ता पायजामा गाँठ आए. अच्छे- भले शरीफ़ आदमी को लोग 'आइए नेता जी' कहने लगे.
बहुत से लोग समझते हैं कि भाषण देना सीख जाओ तो नेता बन जाते हैं. पर नेता बनना इतना आसान थोड़े है. अगर ऐसा होता तो वरुण गाँधी कब के नेता बन गए होते. इतना ज़ोरदार भाषण दिया फिर भी नेता बनना तो दूर लेने के देने पड़ गए.
कुछ लोग कहते हैं कि राजनीति में परिवारवाद है, बाप बड़ा नेता है तो बेटा नेता बन जाता है. कुछ हद तक बात ठीक हो सकती है पर हमेशा ऐसा नही होता. अगर आप को मेरी बात पर विश्वास न हो तो क्ल्याण सिंह से पूछ लीजिए. वे तो बहुत बड़े नेता रहे हैं. बेटे के चक्कर में भाजपा और मुलायम के बीच पेंडुलम की तरह घूमते रहे और इसी पेंडुलमवाजी में अंततः उनके राजनीतिक जीवन की घड़ी ही बंद हो गई. अब तो शायद उसमें जंग भी लग गई होगी. अब वह कभी दोबारा चलने लायक़ हो पाएगी इसमें शक़ है.
बड़ा नेता कैसे बना जा सकता है हालांकि इसके बारे में कोई ठोस या सार्वभौमिक नियम नहीं है, फिर भी कुछ केस देखकर बड़ा नेता बनने के तरीक़ों को समझा जा सकता है.
अब राहुल गाँधी को ही देख लीजिए. जाने कितने चतुर सुजानों ने कॉग्रेस के दरबार में ज़िंदगी गुज़ार दी और दरबारी के दरबारी ही बने रह गए. अपने युवराज को देखो राजनीति का क ख ग सीखा नहीं कि युवराज भी बन गए. ऐसे देखा जाए तो बड़ा नेता बनने के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, बस आप युवा होने चाहिए, आपको रोड शो करना आना चाहिए, जब कभी किसी दलित की झोपड़ी में जाकर एक दो कौर रोटी खाना आना चाहिए, अगर दूसरे की सरकार जनता पर लाठियां चलाए तो आप को भारतीय होने पर शर्म आनी चाहिए और आपकी सरकार गोली चलाए तो चुप बैठना आना चाहिए. लेकिन इतना कर लेने से ही बड़े नेता नहीं बन जाते अगर इतने से बन जाते तो इतना करना कोई मुश्किल काम नहीं है, इतना तो कोई भी कर लेता.
यों उमा भारती के केस को देखा जाए तो ऐसा लगता है कि अगर आपको मुसलमानों को गाली गलौज़ करने के अलावा और कुछ नहीं आता है तब भी आप बड़े नेता बन सकते हैं पर बड़ा नेता बनना इतना आसान भी मत समझ लेना. वास्तव में समय समय की बात है वरना उमा उसी टैक्निक को अपना कर इतनी बड़ी नेता बन गईं और वरुण गांधी ने वही टैक्निक अपनाई तो बेचारे कहीं के नहीं रहे.
खैर मैंने तो कुछ केसों पर रोशनी डालते हुए समझे की कोशिश की है कि बड़ा नेता कैसे बना जा सकता है. बाक़ी सही सॉल्यूशन तो तभी मिल पाएगा जब यह विषय राजनीति विज्ञान के कोर्स में लग जाएगा और कोई इस पर शोध करेगा.

Sunday, 15 May 2011

पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था क्रिकेट है

एक समय ऐसा आ गया जब हर चीज़ पैसे से नापी जाने लगी. पैसे से हर काम होने लगा. जिसका हर काम हो जाए वही इज़्ज़तदार कहलाने का हक़दार बन गया. पैसा है तो इज़्ज़त है. इज़्ज़त है तो आप इंसान हैं. वरना कैटल क्लास, कीडे मकोडे कुछ भी हो सकते हैं.
ज़माना और आगे बड़ा. फिर पैसे का पर्याय क्रिकेट हो गई. क्रिकेट खेलना तो बहुत सम्मान की बात है क्रिकेट देखना भी सम्मान की बात हो गई. पैसा, राजनीति, घोटाले, सट्टा बज़ार विज्ञापन छेड़्छाड़ नंगापन सब कुछ क्रिकेट में समा गया. कुल मिलाकर लोकतांत्रिक पूँजीवाद की कोई चीज़ ऐसी नहीं रही जो क्रिकेट में न मिले.
क्रिकेट में बड़े नेता हैं. शरद पवार से लेकर लालू और अरुण जेटली तक जैसी मारामारी कभी मंत्री बनने के लिए मचा करती थी वैसी मारामारी आज क्रिकेट बोर्ड का पद लेने के लिए मची है. आने वाले समय में बी.सी.सी.आई का अध्यक्ष बनने की न्यूनतम शर्त यही होगी कि वह भारत का प्रधानमंत्री हो. क्लब वगैरह के अध्यक्ष को लाल और नीली बत्ती बाँटी जाया करेंगी. सरकार का समर्थन करने के लिए नेता मोल भाव करेंगे- उन्हें फलाँ क्रिकेट क्लब का अध्यक्ष बना दिया जाए.
क्रिकेट ने हमारे लोकतंत्र के सारे मानक बदल दिए हैं. अब लोग डॉक्टर, इंजीनियर,आई.ए.एस या वैज्ञानिक नहीं बनना चाहते अब लोग क्रिकेटर बनना चाहते हैं. पहले सुनने में आता था किसी आईआईटिअन वगैरह को 10-20 लाख का पैकेज मिला है तो बहुत बड़ी बात होती थी आज यह सुनना कि फलाँ क्रिकेटर 1-2 कारोड में बिका है या उसने किसी कंपनी से 20-30 कारोड़ की डील की है बहुत मामूली सी बात है. ज़ाहिर सी बात है आने वाले समय में लडके का रिश्ता आएगा तो घर वाले बड़े गर्व से कहा करेंगे लडका कॉलेज की क्रिकेट टीम में है. जैसे अभी लोग कहते हैं लडका सरकारी जॉब में है. कॉलेज टीम के कप्तान की हैसियत किसी डॉक्टर इंजीनियर से कम थोड़े ही होगी.
जैसे पूँजीवाद में बाज़ार का वर्चस्व होता है और जीवन का कोई भी क्षेत्र बाज़ार के मूल्यों प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता वैसे ही क्रिकेट ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है. क्रिकेट ने संस्कृति, कला साहित्य भाषा सभी कुछ प्रभावित किया है. आलोचक लघुकथा के बारे में लिखता है तो ट्वेंटी ट्वेंटी की तरह हैं जैसी भाषा इस्तेमाल करता है. कहानी के बारे में लिखता है तो कहता है ये कहानियां वन डे जैसा आनंद देती हैं और उपन्यास की तुलना वह टेस्ट मैच से करता है. अखबार की तो पूरी भाषा ही क्रिकेट से उधार ले ली गई है. अगर आज प्रधानमंत्री इस्तीफ़ा दे दे तो उसका शीर्षक यही होगा- प्रधानमंत्री क्लीन बोल्ड.
अभी भ्रष्टाचार पर बहुत हाय तोबा हुई है. एक अखबार में मैंने पढ़ा- भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए क्रिकेट जैसा जुनून चाहिए. मतलब अब सब कुछ क्रिकेट से ही तय होगा. लडके वाले लड़की देखने जाएंगे तो ऐसे ही सवाल पूछेंगे- विस्फोटक बल्लेवाज क्या होता है? गुगली में और सीमर में क्या अंतर होता है? वगैरह-वगैरह.
राजनीतिशास्त्रियों व समाजशास्त्रियों को व्यवस्था को समझने के लिए क्रिकेट को समझना अनिवार्य होगा. क्रिकेट पूँजीवादी लोकतंत्र की सत्य प्रतिलिपि बन गई है. जिसमें पैसा है राजनीति है घोटाले हैं, पागलपन है सट्टा है, चीयर्स गर्ल्स हैं. और हां पूनम पांडे हैं. बहुत से लोग उसकी हरकत को एक आइटम गर्ल(वह भी इसी व्यवस्था की देन है) टाइप छिछोरी हरकत समझ कर बस मज़े ले रहे हैं. पर यह चीअर्स गर्ल्स से आगे की अवस्था है जो इस वर्डकप में न सही तो अगले वर्डकप में होनी ही है. और वह क्रिकेट के पूँजीवादी लोक्तंत्र की चरमावस्था होगी. आप यह भी कह सकते हैं कि तब क्रिकेट का पूँजीवाद अपने असली रूप में आ चुका होगा.
लेनिन ने कहा था साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरमावस्था है पर यह बात रूस और अमेरिका के लिए कही थी. भारत में पूँजीवाद की चरमावस्था क्रिकेट है.

Tuesday, 1 March 2011

खेल में क्रिकेट

क्रिकेट भी बहुत दिलचस्प खेल है. या फिर खेल तो कुछ दूसरा ही है उसमें थोड़ी सी क्रिकेट है. पता नहीं अब तक किसी क्रिकेट प्रेमी ने गिनीज बुक के लिए यह दावा क्यों नहीं किया कि ऐसा खेल जो एक दिन में उतनी जगह अख़बारों में पाता है जितनी जगह दूसरे खेलों को पूरी साल में नसीब होती है. मैच चल रहा है तब तक मैच के बारे में छप रहा है मैच ख़त्म हुआ तो अगले मैच के बारे में पढ़िए. पिच कैसी बनाई जा रही है, कौन सी टीम ने कितने मैच जीते हैं कितने हारे हैं, किस खिलाड़ी ने कितने रन बनाए हैं, कितने विकिट लिए हैं, कितने कैच लिए हैं, कितने छोड़े हैं, भारी आंकड़े हैं इस खेल में.अगर एक खिलाड़ी के आंकड़े भी बनाने बैठ गए तो ज़िंदगी निकल जाएगी पर आंकड़े नहीं बना पाओगे. वह भी तब जब केवल खेल के ही आंकड़े बनाने हों अगर दूसरे आँकड़े भी बनाने लगे तो फिर आपको दूसरा जन्म लेना पड़ेगा.
गिनीज़बुक, फ़ॉर्ब्स, टाइम न जाने कितने फालतू के आँकड़े बनाते रहते हैं. अगर एक बार क्रिकेट के बारे में आँकड़े बनाना शुरू कर दें तो और किसी के बारे में आँकड़े बनाने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलेगी. एक मैच में सबसे अधिक विज्ञापन दिखाने वाला खेल, अखबारों में सबसे अधिक छाया रहने वाला खेल. खिलाड़िओं को सबसे ज़्यादा पैसे देने वाला खेल, सबसे ज़्यादा सट्टा लगवाने वाला खेल, सबसे ज़्यादा फिक्स होने वाला खेल, ऐसा खेल जो नेतओं को बहुत आकर्षित करता है. यों नेताओं को सिर्फ़ कुर्सी ही आकर्षित करती है परंतु क्रिकेट ऐसा खेल है जो नेताओं को कुर्सी के अलावा भी बहुत अधिक आकर्षित करता है. शरद पवार जो कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए महासंग्राम छेड़े थे आज क्रिकेट की कुर्सी से ऐसे चिपके हैं कि कृषि मंत्री की कुर्सी तो उनके लिए जैसे किसी क्लब की सदस्यता जैसी हो गई है. क्या पक्ष क्या विपक्ष सिर्फ़ क्रिकेट की कुर्सी ऐसी है जो सत्ता की कुर्सी की तरह सबको समान रूप से आकर्षित करती है. लालू, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण जेटली ....आज के समय मे भला कौन सा ऐसा नेता होगा जो सत्ता की कुर्सी के साथ- साथ क्रिकेट की कुर्सी नहीं संभालना चाहेगा? आज कोई शरद पवार से पूछे कि आप क्रिकेट में रहना पसंद करेंगे कि मंत्रिमंडल में तो निःसंदेह वे क्रिकेट को ही चुनेंगे. दर अस्ल क्रिकेट के साथ इतने खेल जुड़े हुए हैं कि यह तय कर पाना बहुत कठिन है कि इन खेलों में क्रिकेट कितना है.

Saturday, 15 January 2011

कल्याण सिंह अब क्या करेंगे?

-Ram Prakash Anant
अयोध्या पर कोर्ट का फ़ैसला आ गया है. बात अयोध्या की हो और कल्याण सिंह का नाम न आए ऐसा कैसे हो सकता है.वे कह रहे हैं कि वे मंदिर मुद्दे को नहीं छोड़ेंगे.मंदिर वहीं बनाएंगे.यों वे क्या कह रहे हैं उसका कोई मतलब नहीं है.एक समय ऐसा भी था जब वे कुछ भी कह देते थे मीडिया के लिए उसका मतलब होता था,लेकिन अब नहीं है. वे कह रहे हैं मस्जिद गिराने का उन्हें कोई अफ़सोस नहीं है. कुछ दिन पहले वे कह रहे थे मस्जिद गिराना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी. और मस्जिद गिराई गई तब भी उन्होंने काफ़ी गर्व महसूस किया था. लगता है वे बहुत ज़्यादा कंफ़्यूज़ हो गए हैं कि मस्जिद गिराना उनकी सबसे बड़ी भूल थी, या फिर भाजपा छोड़ना उनकी सबसे बड़ी भूल थी या फिर मुलायम सिंह के साथ आना. सही भी है. राजनीति में आज वे जिस जगह खड़े हैं वहाँ पर कोई भी कंफ़्यूज़ हो सकता है. वे तो कंफ़्यूज़ ही हैं वरना जिस जगह वे खड़े हैं वहाँ तो आदमी के होश ही उड़ जाएं. ख़ैर.
एक बार उनसे सपने में मुलाक़ात हो गई तो हमने ऐसे ही मुद्दों पर उनसे बातचीत की. उन्होंने जो बेबाक उत्तर दिए उन्हें हम नीचे दे रहे हैं-
प्रश्न- अभी आप कह रहे हैं कि आप हिंदू एवं मंदिर मुद्दे को नहीं छोड़ेंगे, कुछ दिन पहले जब आप मुलायम सिंह के साथ थे तब कह रहे थे, मस्जिद गिराना आप की ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी. क्या आप इस मुद्दे पर कंफ़्यूज़ हैं ?
कंफ़्यूज़ शब्द सुनकर उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया. बोले- देखिए में राजनीति में राजनीति करने आया हूँ, अपने आप को हरिश्चंद्र सिद्ध करने नहीं. भाजपा ने मंदिर मुद्दे पर पूरी राजनीति खड़ी कर ली. उसके वोट बैंक का आधार ही मंदिर मुद्दा और मुस्लिम विरोध है. मैं मुलायम की पार्टी में आया. उनकी पार्टी के वोट बैंक का आधार पिछड़े व मुस्लिम हैं. सो मैंने कहा मस्जिद गिराना मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी. फिर क्या मुझे यह कहना चाहिए था, मस्जिद गिराने पर मुझे गर्व है?
उनकी बेबाक टिप्पणी से हम निरुत्तर हो गए. फिर थोड़ी हिम्मत जुटा कर बोले-सिद्धांत भी तो कोई चीज़ होती है?
उत्तर- होती क्यों नहीं है बहुत बड़ी चीज़ होती है, लेकिन गणित और विज्ञान की किताबों में. राजनीति में सिद्धांत का कोई मतलब हो तो हमें बताइए.
बहुत सोचने के बाद भी राजनीति में सिद्धांत से किसी का कोई मतलब समझ नहीं आया तो हमने अगला प्रश्न किया- आप भी मंदिर की बात करते हैं और भाजपा भी करती है, आप भी हिंदू की बात करते हैं भाजपा भी करती है फिर आपने भाजपा क्यों छोड़ी?
उत्तर- देखिए न हमें हिंदू से कोई मतलब है न उमा को कोई मतलब है न भाजपा को. हो सकता है संघ को कोई मतलब हो. आपने निदा फ़ाज़ली की नज़्म 'एक नेता के नाम' तो पढ़ी ही होगी 'तुम्हें हिदू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है, तुम्हारा धर्म सदियो से तिज़ारत था तिज़ारत है.' लोग कहते हैं यह नज़्म एक नेता के नाम नहीं आडवाणी के नाम है. पर मैं कहता हूँ यह नज़्म सभी नेताओं के नाम है. हमारा धर्म सदियों से तिज़ारत था तिज़ारत है. जहाँ तक भाजपा छोड़ने का सवाल है आप ख़ुद समझदार हैं, ख़ुद जानते हैं कि कोई राजनीति क्यों करता है और क्यों किसी पार्टी को छोड़ता है.
हमने आगे पूछा- आप फिर हिंदू और मंदिर मुद्दे पर लौट आए हैं भाजपा के आगे आपको कौन पूछेगा?
उत्तर -तो आप ही बताइए किस मुद्दे पर राजनीति करूँ? मुसलमान मुझ पर विश्वास नहीं करते, पिछड़ों की राजनीति शरद यादव, लालू, मुलायम ने हथिया ली. दलित मायावती को छोड़कर मेरे पास क्यों आएंगे?
बात उनकी 24 कैरट सही थी सो हम निरुत्तर हो गए. हमें चुप देखकर वे उठकर चले गए. शायद उन्हें किसी हिंदू रैली को संबोधित करना था.वे उठकर चले गए तो हमारी भी आँख खुल गई.अब हम नींद में नहीं थे जाग गए थे सो कई तरह के सवाल मन में आते रहे.
भले ही कल्याण सिंह के पास कोई और मुद्दा न हो पर हिंदुत्व पर उनकी दुकान नहीं चल पाएगी. किसी ज़माने में उमा भारती भाजपा के हिंदुत्व की सबसे बड़ी ब्रांड एंबेसडर थीं. उन्हें भी ग़लतफ़हमी हो गई. किसी कंपनी का ब्रांड एंबेसडर होना अलग बात है और उसी माल को अपना ब्रांड बना कर बेचना दूसरी बात है. वे बार-बार चिल्ला रही हैं कि भाजपा का हिंदुत्व नकली है मेरा असली, फिर भी आज उनके हिंदुत्व को कोई दो कौड़ी में भी नहीं पूछ रहा है.

Wednesday, 5 January 2011

इससे तो वही अच्छा था

-राम प्रकाश अनंत
एक समय ऐसा भी आया जब बिहार में सुशासन का गुणगान करने से मीडिआ को सांस लेने की फ़ुरसत नहीं थी.हर कोई यह बताने के लिए बाबला हुआ जा रहा था कि नीतीश ने कितनी सड़्कें बनवा दीं. सही भी है जहाँ 15 साल में लालू पगडण्डियां तक नहीं बनवा पाए वहाँ अगर सड़क बन जाए तो वह कोई मामूली विकास है! उसे सुशासन नहीं तो और क्या कहा जाएगा. बाक़ी हत्याएं,बलात्कार रंगदारी भर्तियों में घोटाले अपनी जगह हैं. सुशासन के लिए तो बस एक सड़क की ज़रूरत होती है. भले ही मुख्यमंत्री आवास के पास लोग भ्रष्टाचार व लापरवाई से तंग आ कर आत्महत्या कर रहे हों. सड़क बनने को ही पूरा मीडिआ सुशासन कह रहा है तो मान लेते हैं और हमारे न मानने से भला क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा.
सुना जाता है जनता कर्मचारियों को दौड़ा दौड़ा कर पीट रही है. डॉक्टरों तक को नहीं बख़्श रही.अब तो एक महिला ने किसी बलात्कारी नेता का ख़ून ही कर दिया.लगता है सरकार ने सुशासन की बागडोर सीधे जनता के हाथ में दे दी है -अपना न्याय ख़ुद करो,सुशासन के बाद अब नया शब्द स्वशासन ही आएगा.यानी जनता के द्वारा ख़ुद का शासन.
जब में छोटा था तब गांव में प्रधानी के चुनाव थे.दो उम्मीदवार मैदान मैं थे. गांव के एक बुज़ुर्ग़ एक कहानी सुनाते थे. एक राजा बहुत अत्याचारी था.जब वह मरने को हुआ तो रोने लगा. उसके बेटे ने पूछा-क्यों रो रहे हो? तो उसने कहा मैंने जनता पर इतने अत्याचार किए हैं कि मरने के बाद कोई मेरा नाम नहीं लेगा.लड़्का बोला, आप चिंता मत करो आपका नाम सारी जनता लेगी.उसके बाद जब लडका राजा बना तो उसने मुनादी पिटवा दी कि मरने के बाद हर आदमी को राज दरबार में लाया जाए.जब मरा हुआ आदमी राज दरबार में लाया जाता तो वह उसके खूंटा ठोंक देता.पूरी जनता में हा-हाकार मच गया. जनता कहती-इससे तो पहले वाला ही अच्छा था. वह तो ज़िंदा आदमी पर ही अत्याचार करता था. यह तो मरे हुए आदमी की भी दुर्गति कर देता है. बिहार ने कुशासन और सुशासन दोनों देख लिए.अब आप ही सोचिए यह अच्छा है या इससे पहले वाला ही अच्छा था.

Saturday, 1 January 2011

सी.बी.आई. और जांच

सी.बी.आई. और जांच
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-राम प्रकाश अनंत
लो जी उधर घोटाला हुआ और इधर जांच शुरू हो गई. घोटाला हो और उसकी सी.बी.आई जांच न हो तो यह तै ही नहीं हो पाता कि वह घोटाला है भी कि नहीं.आज करोड-दो करोड का घोटाला तो किसी भी ऑफ़िस में हो जाता हैं पर उसे कौन घोटाला मानता है.कारण वही कि उसकी सी.बी.आई जांच नहीं होती.इसलिए ही हर घोटाले के बाद जोर-शोर से यह आवाज़ उठाई जाती है कि उसकी सी.बी.आई जांच कराई जाए. तो एक बार फिर अब तक का सब से बडा घोटाला सामने आ गया है और उसकी सी.बी.आई जांच शुरू हो चुकी है.
लोग कह रहे है कि सी.बी.आई ने देर से जांच शुरू की है. सी.बी.आई न देर से जांच शुरू करती है न जल्दी शुरू करती है.उससे तो जब कह दो तभी जांच शुरू कर देती है.सी.बी.आई एक बेहद आग्याकरी बच्चे की तरह है.उससे कह दो जांच कर ले, कर लेगी.उससे कह दो, जांच बंद कर दे, बंद कर देगी.उससे कह दो सबूत इकट्ठे कर ले, सबूत इकट्ठे कर लेगी.उससे कह दो सबूत मिटा दे, मिटा देगी.उससे कह दो केवल जांच करना है और कुछ नहीं करना है वह केवल जांच करेगी और कुछ नहीं करेगी.
ऐसे ही एक केस को लेकर जब सी.बी.आई कोर्ट पहुँची तो जज ने पूछा-क्या किया आपने?उत्तर-जांच की.कोई सबूत मिला?उत्तर-नहीं.कोई अपराधी साबित हुआ?उत्तर-नहीं. फिर आपने क्या किया? उत्तर- जांच की.आपको क्या करना था? केवल जांच करनी थी.
हम लोग सोच रहे है अब तक के सबसे बडे घोटाले की जांच के बाद क्या होगा?कमाल हैं !हम अब तक इतना भी नहीं समझ पाए?आज तक हर घोटाले के बाद जांच हुई है और जांच के बाद क्या हुआ है?कुछ भी नहीं. इसकी भी जांच होगी और जांच के बाद कुछ भी नहीं.